Saturday, February 27, 2010

मैं शमशान घाट का मरघट

मैं शमशान घाट का मरघट


धीमे पाँव मौत आती है,
उसके बाद की चीखें, मेरे कानो को रौंद जाती हैं
न बंद होती शिस्कियाँ, मेरी आँखों को भी भिगोती हैं
लकिन ये रोये भी तो किसके लिए,
सब ओर बस लाशें ही तो हैं


लकड़ी की कीमत, सब पूछते,
कोई हाल नहीं पूछता,
मैं भी मरने वाले का नाम नहीं पूछता


हर रोज देखता हूँ, जलते शरीर को,
बाप को देखा, बेटे को जलाते,
बेटा बाप को जलाये, तो लकड़ी कम लगती है,
बाप बेटे को जलाये, तो आग बहुत देर तक जलती है


सफ़ेद चादर में, नवेली दुल्हन के जोड़े को जलते देखा है,
मासूम बच्चे को, खुद को अनाथ करते देखा है
उसके हर सवाल पर, सबको बेहाल होते देखा है

वो थो बस थोड़ी सी राख, कलश में भर लेते,
और मैं उस पूरी राख को देखता,
फिर एक और लाश, और उसकी बची राख

एक दिन घर वापस आया,
पत्नी ने पूछा - "खाना खाया?"
हमने कहा "हाँ"
वो बोली - "लकिन दाल में थो नमक ही नहीं था?"
हमने कहा -
"वहाँ सिर्फ लाशें नहीं जलती,
कितने ही घर जलते हैं रोज
लपटों में एक मुर्दा, और उसके साथ कई जिन्दा लोगों को जलते देखता हूँ मैं
बच्चो को चीखते देखते हूँ - 'मेरे मान को मत जलाओ, मेरे पापा को मत जलाओ' "
"तुम दाल का स्वाद पूछती हो,
मुझे थो नमक का ही स्वाद नहीं पता "

राम नाम सत्य है,
एक लोकप्रिय गीत नहीं मेरे लिए,
लोग एक दिन उस सच को जीते हैं,
और मैं हर रोज, उस सच को जीता हूँ

हर रोज लाशो को गिनता हूँ,
और हर रोज, एक लाश कम पण जाती है
हर रोज ही, खुद को गिनना भूल जाता हूँ,
मैं जिन्दा हूँ, मगर हमेशा लाशों में गिना जाता हूँ

मैं शमशान घाट का मरघट
मैं शमशान घाट का मरघट

-© copy right Vishal Singh